Tuesday, April 26, 2011

अपना-पराया

तुम्‍हारा कहना
फिर आना
मेरा बन गया
रोजनामा
मैंने तो बहुत
बाद में
जाना
लेकिन क्‍या जरूरी था
तुम्‍हारा
मुझे इस तरह
सूद पर सूद का
हिसाब समझाना.
10.01.1991


आंखों को मींचे
सपनों को भींचे
पत्‍थर को सींचे
क्‍या कुछ खिला है
पांवों पर चलते
हाथों को मलते
धीरे-धीरे गलते
मुझे क्‍या मिला है
फिर भी
आपको मुझसे
क्‍या गिला है.
29.06.1991

Wednesday, April 6, 2011

कविताःछत्‍तीसगढ़

पिछले दिनों
'कविता छत्‍तीसगढ़'
पुस्‍तक प्रकाशित हुई है.
वरिष्‍ठ साहित्‍यकार
श्री सतीश जायसवाल
द्वारा संपादित पुस्‍तक का प्राक्‍कथन
कवि-चित्रकार श्री विश्‍वरंजन
(इन दिनों छत्‍तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक) ने
'कुछ जरूरी बात' शीर्षक से लिखा है.
पुस्‍तक में मेरी ये तीन कविताएं शामिल हैं-

चांद डूब जाता है
नहीं
चांद पर बैठी
चरखा चलाती
बुढि़या की नहीं
खरगोश की बात कर रहा हूं
जो रोज चांद उगने पर
अपनी पिछली टांगों पर खड़ा
हो जाता है
सिपाही की तरह
मानों आज चांद को डूबने नहीं देगा
इस कोशिश में
वह मूंछे नचाता है
भयावह अंदाज में
होंठ सिकोड़ कर
पीले और नुकीले
दांत दिखाता है
लेकिन इन सब के बावजूद
नहीं छुपा पाता
आंखों में उभरा भय
धीरे-धीरे एक हाथ बढ़ता है
उसकी ओर
उठा लेता है उसे
पकड़ कर
लंबे कानों से
डाल देता है
सुनहरे तारों के पिंजरे में
और चांद डूब जाता है.

ध्रुव तारा भी
पढ़ते-पढ़ते
जब जाना
ध्रुव तारा भी
अटल नहीं
तब से
किसी एक जगह
जम जाना
टलता रहा.

चेहरा
जब इतना करीब हो
चेहरे से
कि
आंखों में बनने
लगें
आंखों के अक्‍स
तब कैसे हो
आपसे
मेरे चेहरे की
पहचान
   अलग-अलग.